पिछली शताब्दी के अंतिम दशकों में दुनिया ने तकनीकी विकास के मामले में जो गति पकड़ी थी वो अब थमने का नाम नहीं ले रही है। तेज रफ्तार संचार ने तो जैसे जीवन को एकदम बदल कर ही रख दिया है। इंटरनेट की सुलभता, सोशल मीडिया और अपनी भाषा में उनका उपयोग करने की सुविधा ने जैसे हमारे सामने एक नयी दुनिया खोल कर रख दी थी। फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप सहित कितने ही माध्यम मिल गये हमें अपनी बात दुनिया के सामने रखने के। जिन लोगों से हम मिल नहीं पाते हैं उनसे जुड़ना आसान हो गया है। समान रूचियों के लोगों के बीच सोशल मीडिया ने जैसे एक नया समाज बना दिया है। सब कुछ बहुत सुहाना लगता है। पर क्या हम जानते हैं कि इस सुहाने सफर यानी कि सोशल मीडिया का हमारे जीवन पर कितना नकारात्मक असर हो रहा है?
दुनियाभर में एक तरफ स्मार्टफोन और इंटरनेट का जाल फैलता जा रहा है तो दूसरी तरफ इस बात की चिंता भी कि इसके कारण जो बीमारियां-शारीरिक और मानसिक फैल रही हैं उनसे कैसे निजात पायी जाए, खासतौर पर युवाओं को उनसे कैसे बचाया जाए। पिछले कुछ माह से लगातार सोशल मीडिया चर्चा में है परंतु सकारात्मक कारणों से नहीं, नकारात्मक कारणों से। कुछ माह पहले जब यह खबर आयी थी कि अमेरिका, ब्रिटेन, भारत आदि देशों में चुनाव में जनमत को प्रभावित करने के लिए सोशल मीडिया के डाटा का उपयोग किया गया था तो पूरी दुनिया चौंक गयी थी। किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि जिस सोशल मीडिया को लोग अपने सामाजिक संबंधों को बढ़ाने, मजबूत करने और अपने विचारों के प्रसार का माध्यम मान रहे हैं उसका इस्तेमाल इस तरह भी किया जा सकता है। भारत में 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा उपयोग किया और उसका उसे लाभ भी हुआ। परंतु यह तो सोशल मीडिया का एक ही पहलू है। उसका दूसरा पहलू युवाओं व बच्चों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव है। इस बारे में समय-समय पर किये जाने वाले अध्ययनों में लगातार लोगों को चेताया जाता रहा है। अभी हाल ही में ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के बाद कहा गया कि सोशल मीडिया की लत शराब-सिगरेट से कम घातक नहीं है। 1500 लोगों पर किये गये अध्ययन से यह पाया गया कि सोशल मीडिया की लत के कारण लोगों में अवसाद और हीनभावना जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। विशेषज्ञों के अनुसार सोशल मीडिया के कारण लोग वर्तमान में रहना छोड़ देते हैं। सोशल मीडिया पर दूसरों की तस्वीरें या पोस्ट लगातार देखने से आपका आत्मविश्वास कम होने लगता है। जिन लोगों को रात में बिस्तर में जाने के बाद भी सोशल मीडिया पर क्या आया है यह देखने की आदत होती है उन्हें अनिंद्रा रोग हो सकता है।
शिकागो विश्वविद्यालय ने 2012 में एक अध्ययन के बाद यह पाया था कि इंसान के लिए नींद और भूख के बाद सोशल मीडिया वह तीसरी ऐसी जरूरत है जिस पर नियंत्रण करना संभव नहीं हो पा रहा है। स्टेट ऑफ माइंड की रिपोर्ट कहती है कि युवाओं में हीनभावना जगाने के लिए इंस्टाग्राम सबसे अधिक जिम्मेदार कहा जा सकता है। उसके बाद स्नैपचैट व फेसबुक का नम्बर आता है। इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि यूट्यूब का लोगों की सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। यह निष्कर्ष किस आधार पर निकाला गया यह साफ नहीं है जबकि हकीकत में यूट्यूब पर जिस तरह अश्लीलता परोसी जा रही है उसे देखते हुए तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसका कोई असर नहीं होता।
बहरहाल, इन अध्ययनों के अलावा भी कई अध्ययन समय-समय पर सामने आते रहे हैं। ऐसे ही एक अध्ययन में पाया गया था कि सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग के कारण बच्चे उसके इतने आदि हो जाते हैं कि वे जरा-सी बात पर भी आवेशित हो जाते हैं। सोशल मीडिया के कारण उनका पढ़ाई पर ध्यान नहीं रहता। पिछले दिनों लखनऊ के किंग जार्जेस मेडिकल यूनिवर्सिटी के ओरिएंटेशन कार्यक्रम में डॉक्टरों व नर्सों को जिस तरह से मोबाइल फोन पर व्यस्त देखा गया वह अलग चिंता का विषय है। पर वहीं के डॉक्टरों की मानें तो मोबाइल चलाते समय एक ही दशा में अधिक समय तक बैठे रहने से सर्वाइकल स्पॉन्डलाइटिस हो जाता है। यह खतरा 40 साल से अधिक के लोगों को अधिक रहता है। इसी प्रकार वहीं के एक डॉक्टर भूपेंद्र सिंह का कहना है कि लगातार मोबाइल पर व्यस्त रहने के कारण लोगों में तनाव की समस्या बढ़ रही है। मोबाइल से डिप्रेशन का खतरा भी बढ़ जाता है। इसी प्रकार लेबब्लॉग.यूओएफएमहेल्थ.ऑर्ग की एक रिपोर्ट में यह माना गया कि प्रत्यक्ष न सही पर अप्रत्यक्ष रूप से अभिभावकों के मोबाइल व अन्य उपकरणां पर व्यस्त रहने के कारण उनके बच्चों पर असर हो रहा है। मिशिगन विश्वविद्यालय के एक अस्पताल द्वारा किये गये अध्ययन में यह पाया गया कि स्मार्टफोन व अन्य उपकरणों पर अभिभावकों की घर पर भी व्यस्तता के कारण उनका पारिवारिक जीवन प्रभावित हो रहा है। भोजन करते समय या खेलते समय बच्चे सोशल मीडिया पर व्यस्त रहते हैं जिसके लिए टोका जाना उन्हें पसंद नहीं आता। इसके कारण भी पारिवारिक तनाव बढ़ रहे हैं।
इस तरह के अध्ययन आगे भी होते रहेंगे जो हमारी चिंताओं को बढ़ाने का ही काम करेंगे क्योंकि जो हालात बन गये हैं उनमें बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी सोशल मीडिया के जाल से मुक्त हो पाना फिलहाल संभव नहीं लग रहा। पिछले दिनों कई ऐसी खबरें सामने आयीं जिनमें दावा किया गया कि दो साल का बच्चा भी मोबाइल चलाता है। दिल्ली में अक्सर बस में या मेट्रो में यह देखने को मिलता है कि कोई बच्चा यदि रोता है तो मां या पिता तत्काल उसके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं। वह बच्चा जो अभी बोलना भी नहीं सीखा है मोबाइल को पहचानता है। आज स्कूली जीवन से ही बच्चे फेसबुक व व्हाटसएप का उपयोग करने लगे हैं। रोज क्लास व स्कूल में मिलने वाले बच्चे भी घर जाने के बाद आपस में सोशल मीडिया पर चैटिंग करते हैं। बड़ों की हालत यह है कि एक ही मेट्रो के एक ही डिब्बे में बैठे लोग एक साथ यात्रा जरूर कर रहे होते हैं पर एक साथ नहीं होते। ज्यादातर अपने मोबाइल पर व्यस्त होते हैं, फेसबुक पर या व्हाटसएप पर संदेश पढ़ने व भेजने में। बहुत से लोग तो बस या मेट्रो में चढ़ते व उतरते समय भी उस पर व्यस्त रहते हैं। बगल में कौन बैठा था वह कैसा दिखता या दिखती है यह पता तक नहीं होता। सोशल मीडिया की दी यह एक नयी बीमारी है। इन और ऐसी ही तमाम बीमारियों का इलाज हम तलाश नहीं कर पा रहे हैं। यह समस्या कम नहीं होने वाली क्योंकि देश में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इस साल उनकी संख्या 50 करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर साल इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या में करीब 12 प्रतिशत बढ़ोतरी हो रही है। इस हिसाब से अनुमान है कि अगले दस साल में यह संख्या एक करोड़ से अधिक होगी। यानी कि सोशल मीडिया का उपयोग बढ़ेगा। ऐसे में सरकारी और उससे अधिक सामाजिक स्तर पर सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए कोई ठोस योजना बनानी होगी। अगर समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो शायद भविष्य में हमें मौका ही न मिले।